THIKANA--- OGNA(ओगणा)

 "ठिकाना:- ओगणा भोमेट"






ठिकाना ओगणा मूल रूप से सोलंकी राजपूतों का ठिकाना हे , जो भोमट पानरवा के सोलंकी वंश की । पानरवा की भांति ओगणा गांव भी भोमट में वाकल नदी के बायें किनारे पर बसा हुआ है । वाकल गोगुंदा के पहाड़ों से निकलकर आती है । ओगणा कोटड़ा से उत्तर - पूर्व में 21 मील दूरी पर झाडोल से 17 मील दक्षिण में तथा गोगुन्दा  से दक्षिण की ओर 24 मील दूरी पर है । वस्तुतः जब पानरवा ठिकाने का भोमट के वाकल क्षेत्र में विस्तार हुआ , तो इस क्षेत्र के उत्तरी भाग में ओगणा ठिकाना कायम हुआ । ओगणा के सामने का पहाड़ी भाग और नपीता के नाला सोलंकी ने अपने भाइयों सहित यादवों को निष्कासित करके 1478 ई . में पानरवा पर अधिकार ऐसा माना जाता है कि पानरवा के अक्षयराज के काल में ओगणा और उसके निकट ओगणा के सोलंकी एक शाखा के रूप में निकला । के ऊपर वाला पहाड़ी भाग खादरा के नाम से जाना जाता है । उसके पश्चिम की ओर का पहाटी भाग मकोड़िया कहलाता है । मेवाड़ के भोमट पहाड़ी प्रदेश में सिरोही की ओर से इस प्रदेश में प्रवेश कर के किया था । भोमट के पहाड़ी इलाके में आदिवासी भील लोगों को उनके गमेतियों को मारकर अपने अधीन करने का क्रम कुछ वर्षों तक चलता रहा । अन्त में भीलों की सारी स्वतंत्र व्यवस्था चरमरा गई और पन्द्रहवीं शताब्दी के अंत तक सारे भोमट प्रदेश में राजपूतों के स्वतंत्र टिकाने कायम हो गये । सोलंकी , चौहानों की शाखायें , पंवार , सिसोदिया आदि ठिकाने अलग अलग समय में कायम हुए , उन्होंने अपने अलग अलग क्षेत्र बना लिये और आपस में क्षेत्रों के बंटवारे के लिये नहीं लड़े । उन्होंने अपने अपने ठिकानों के प्रभाव क्षेत्र की आपस में समझ और सीमाएं बना ली और ऐसे बहुत कम अवसर आये जब सीमा विवाद को लेकर उनके बीच झगड़ा हुआ । पहाड़ी इलाका होने के कारण निश्चित सीमा रेखाएं बनाना भी उनके लिये कठिन रहा । सोलंकी वंश के संस्थापक अक्षयराज ( 1478-1493 ई . ) की पांचवी पीढ़ी में नाहरसिंह ( नाहरू ) को ओगणा ठिकाना मिला । अक्षयराज के बाद पानरवा में क्रमशः राजसिंह , महिपाल और हरपाल अत्तराधिकारी हुए । हरपाल उत्तराधिकारी हुए । हरपाल ( 1550-1570 ई . ) के दो पुत्र हुए , दूदा और नाहरू । दूदा पानरवा में हरपाल का उत्तराधिकारी हुआ । उसका दूसरा पुत्र नाहरू ( नाहरसिंह ) पानरवा से अलग ओगणा टिकाने का स्वामी हुआ । हरपाल के पानरवा में शासनाधिकारी बनने तक वहाँ के शासकों ने अपनी संतानों अथवा भायपों को कुछ जागीरें प्रदान की थी । अक्षयराज ने अपने भाई को सीसवी गांव दिया था , जिस पर उसने यादव शिवसिंह को निकाल कर कब्जा किया था , जिस भांति सीसवी गांव भाई किशनसिंह को मिला उसी प्रकार पानरवा शासक हरपाल के काल में ओगणा गांव के साथ राजपुरा और कुम्हारवास हरपाल के पुत्र नाहरू को जागीर में मिला । यद्यपि सीसवी ठिकाना पानरवा ठिकाने के अन्तर्गत बना रहा किन्तु ओगणा ने ठिकाना अपनी मूल शाखा के अधिकार से निकाल कर स्वतंत्र ठिकाने का रूप ले लिया 

ओगणा के सोलंकी के गांवों में डकैतियों तथा अन्य अपराध भारी मात्रा में हो रहे थे । उस समय औगणा पर दूधिया ब्राह्मण उदयराज का वर्चस्व था और ओगणा के अन्तर्गत 60 गांव थे । भील लोग ब्राह्मण शासक की परवाह नहीं करते थे और अपराधियों का बहुत जोर था , जिस पर उदयराज काबू नहीं पा रहा था । उदयराज ने ब्राह्मण होने के नाते पानरवा के क्षत्रिय अक्षयराज को मदद करने के लिये आग्रह किया । अक्षयराज ने अपने छोटे पुत्र नाहरू को उदयराज से दो गांव जागीर में दिलवाये और उदयराज की मदद करके और अपराधपूर्ण कार्यवाहियों को रोकने का जिम्मा दिलवाया । किन्तु 1555 ई . में दशहरे के त्यौहार के अवसर पर सोलंकी नाहरू ने अवसर और आवश्यकता देखकर ब्राह्मण उदयराज को मार डाला और सम्पूर्ण ओगणा ठिकाने पर अपना अधिकार कर लिया । तब तक उदयराज शक्तिहीन और अधिकार विहीन हो चुका था । वह नाममात्र के लिये ठिकाने का स्वामी था और असली शासक और अधिकारी नाहरू बन चुका था । 1599 ई . में ईडर के राव और जूड़ा के रावत के मध्य किसी बात को लेकर लड़ाई हुई । उस लड़ाई में ओगणा के रावत जूड़ा रावत के पक्ष में लड़ा और जूड़ा रावत के साथ वह भी मारा गया । जूड़ा रावत के बेटे ने लड़ाई में ओगणा रावत के मारे जाने की क्षतिपूर्ति हेतु ओगणा रावत के बेटे को ' मूंडकटी ' ( मारे गये व्यक्ति की एवज में दी जाने वाली निस्तार राशि ) में बूड़ा गांव दिया । ' मूंडकटी ' देने की प्रथा राजपूतों में तथा पहाड़ी गांवों में सदा प्रचलित रही । आज भी मेवाड़ के ग्रामीण प्रदेश में लोग उस प्रथा को कठोरता से लागू करते हैं और राज्य व कानून की परवाह नहीं करते हैं । जब कोई व्यक्ति किसी के द्वारा मारा जाता है तो मृत व्यक्ति के परिवार वाले अपने लोगो की मदद से उसकी एवज में मारने वाले के परिवार से ' मौताणा ' नाम से पर्याप्त धनराशि लेते हैं अथवा बदले में मारने वाले के परिवार के किसी एक व्यक्ति की हत्या कर देते हैं । 1871 ई . में रावत अमरसिंह ( 1871-1905 ई . ) के ओगणा के स्वामी बनने के बाद ओगणा की विशेष प्रगति हुई । वह एक बुद्धिमान और दूरदर्शी शासक रहा । तब तक मेवाड़ राज्य के शासन के नियम - कानून उसकी जागीरों में लागू करके जागीरों में न्याय व्यवस्था कायम करने का क्रम चल रहा था । तदनुसार अपनी जागीर में भी सुधार करके अमरसिंह ने ओगणा में प्रशासनिक सुधार और शिक्षा कार्य प्रारम्भ करने की नींव डाली । 1905 ई . में उसकी मृत्यु हो गई । रावत अमरसिंह ने वि.सं. 1953 ( 1896 ई . ) में ओगणा में रामनाथ महादेव मंदिर का निर्माण करवाया । तीन वर्ष बाद 1899-1900 ई . में कुल 56000 रुपये व्यय करके दो मंजिला महल , उसके कांचवाला दरवाजा और दो दरीखाने ( न्यायकार्य के कर्मचारियों और बैठक आदि के लिये ) बनवाये । अमरबेल बाग में दो इंटों वाली पक्की बावड़ी और अपने प्रिय घोड़े कन्हैया की स्मृति में एक चबूतरा बनवाया । सम्पूर्ण निर्माण कार्य उदयपुर के मिस्त्रियों अजयसिंह , पृथ्वीराज और जीवा द्वारा किया गया ।रावत अमरसिंह के उत्तराधिकारी ओगणा रावत किशोरसिंह ( 1905-1928 ई . ) ने भी अपने पिता द्वारा प्रारम्भ किये प्रशासनिक कार्य जारी रखे । किशोरसिंह ने बाग में सड़क के किनारे वाली बावड़ी एवं ठाकुरजी का मंदिर बनवाया । अपने पिता की मृत्यु के बाद 1928 ई . में ओगणा का स्वामी बनने के बाद रावत उदयसिंह ( 1928-1937 ई . ) ने केवल नो वर्ष तक शासन किया । उसने राजमहलों के भीतरी भाग में जनाना महल का निर्माण करवाया था । 1937 ई . में अपने पिता के देहावसान के बाद कर्णसिंह ओगणा के उत्तराधिकारी हुए  उनका जन्म वि . सं . 1988 वैसाख सुदी पंचमी को हुआ । रावत कर्णसिंह का विवाह जूड़ा रावत तखतसिंह की पुत्री चंपा कंवर के साथ 1953 ई . में हुआ । कर्णसिंह जी के दो भाई और एक बहन हुए । बहन नंद कंवर का विवाह मान्यास ठाकुर शिवराजसिंह चुंडावत के साथ हुआ । उनके भाई फतहसिंह एवं भोपालसिंह हैं । कर्णसिंह के दो पुत्र एवं पांच पुत्रियां हैं । बडे पुत्र नरदेवसिंह का विवाह टि . आलोली के ठा . नारायणसिंह तंवर की कन्या के साथ हुआ । दूसरे पुत्र पृथ्वीसिंह की शादी लांगज ( चित्तोड़ ) के ठाकुर नारायणसिंह राणावत की पुत्री के साथ सम्पन्न हुआ । पांच पुत्रियों के विवाह - प्रथम पुत्री महेन्द्र कंवर का विवाह टि . सेदरिया ( पाली ) में कुंवर गजेन्द्रसिंह भाटी के साथ हुआ । दूसरी पुत्री ललिता कंबर का विवाह टि . भीलखेड़ी ( छड़ावत ) के ठा . राज बहादूरसिंह राठोड़ के साथ हुआ । तीसरी पुत्री मदन कंवर का विवाह टि . पीपलावरी ( उज्जैन - मध्य प्रदेश ) के ठा . राजेन्द्रसिंह सिसोदिया के साथ हुआ । चौथी पुत्री हेमंत कंवर का विवाह कुकी का गुड़ा ( पाली ) के ठा . हनुमन्तसिंह चाम्पावत के साथ हुआ । पांचवी पुत्री ईश्वरी कंवर का विवाह टि . हेमावास ( पाली ) के ठा . राजेन्द्रसिंह कुम्पावत के साथ हुआ । कर्णसिंह के भाई फतेहसिंह का विवाह पाटिया में तथा दूसरे भाई भोपालसिंह का विवाह जिलोला ( राजसमंद ) के ठाकुर साहब की कन्या के साथ हुआ । फतेहसिंह के पुत्र शूरवीरसिंह का विवाह ठिकाना खोर ( चित्तोड़ ) के ठाकुर की पुत्री के साथ हुआ तथा भोपालसिंह के पुत्र पुष्पेंद्रसिंह का विवाह लांगज ( चित्तोड़ ) के टा . वरदीसिंह की पुत्री के साथ हुआ तथा दूसरे पुत्र विजयराजसिंह का विवाह झूथरी ( जवास ) ठिकाने में ओगणा में समय समय पर मंदिर बनवाये गये जो विद्यमान हैं - .

1. रामानाथ महादेव मंदिर

 2. ठाकुर जी का मंदिर 

3. लक्ष्मीनारायण मंदिर 

4. मानस माता मंदिर

5.कटेश्वर महादेव मंदिर 

1930 ई . के बाद भोमट के अन्य ठिकानों की भांति ओगणा ठिकाना भी मेवाड़ राज्य के अधीन हो गया । उस समय ठिकाने में 17 गांव थे । ठिकाने की आय वार्षिक 11,000 रुपये थी , जिस पर दसूंद कर चुकाने हेतु टिकाने की ओर से 400 रुपये वार्षिक मेवाड़ राज्य को दिये 11 हुआ । जाते थे । ओगणा ठिकाने को मेवाड़ दरबार के अन्तर्गत लिये जाने पर मेवाड़ के महाराणा ने

ओगणा के सोलंकी ओगणा ठिकानेदार रावत कर्णसिंह को द्वितीय श्रेणी के मजिस्टेट के बराबर न्यायिक अधिकार दिये गये । तदनुसार उसको तीन हजार तक के दीवानी मुकदमों का न्याय करने और फौजदारी मुकदमों में अधिकतम एक वर्ष की सजा और तीन सौ रुपये जुर्माना करने के अधिकार प्राप्त थे । राज्य दरबार में पद - प्रतिष्ठा की दृष्टि से महाराणा भूपालसिंह ने रावत कर्णसिंह को दरबार में सामने की बैठक , रावत की पदवी दरीखाने का बीड़ा और पैर में सोना पहिनने के स्वत्व प्रदान किये । सन् 1941 की जनगणना के अनुसार ओगणा ठिकाने में 46 गाँव थे तथा उसकी जनसंख्या 3570 थी ।

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