पानरवा का सोलंकी राजवंश

 भोमट(मेवाड़) का पानरवा ठिकाना का सोलंकी राजवंश 

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पानरवा में सोलंकी वंश 


पानरवा में सोलंकी वंश के शासन की स्थापना ( रावत अक्षयराज से रावत महिपाल तक ) पानरवा में सोलंकी वंश के शासन का संस्थापक अक्षयराज गुजरात से निकलकर अजमेर के निकट आकर रहने वाली सोलंकी वंश - शाखा से संबंधित था । राजपूताने में सोलंकियों का प्राचीन काल से होना पाया जाता है । मेवाड़ , अजमेर , मारवाड़ , वागड़ सहित राजपूताने के बड़े भूभाग पर राजा सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल का अधिकार रहा था । उस समय से कुछ सोलंकी परिवार अजमेर के निकटवर्ती भागों में आबाद हो गये । कुतुबुद्दीन एबक के हाथों 1197 ई . में अन्हिलवाड़ा के पतन और राजा भीमदेव की पराजय के समय भी कुछ सोलकी परिवार राजपूताने की ओर आये । इम्पीरियल गजेटियर आफ इंडिया के राजपूताना वाले भाग में उल्लेख है कि कुतुबुद्दीन एबक ने अजमेर पर अधिकार करके उसके तारागढ़ में मुस्लिम सैनिकों की एक रक्षक सेना तैनात कर दी थी । 1210 ई . में सोलंकियों और मेर लोगों ने हमला करके इस रक्षक सेना के सैनिकों को मार भगाया था । गुजरात के राजा भीमदेव की 1242 ई . में मृत्यु होने पर त्रिभुवनपाल ( भुवनपाल ) अन्हिलवाड़ा की गद्दी पर बैठा । किन्तु एक वर्ष बाद 1243 ई . में ही सोलंकी वंश की ही एक शाखा बघेल के बीसलदेव ने उससे गद्दी छीन ली और वह स्वयं राजा बन गया । त्रिभुवनपाल और उसका परिवार गुजरात से निकलकर अजमेर की ओर आकर भिणाय ( राण , राणक ) में रहे ।




 पानरवा के सोलंकियों का मूल टोंक इलाके के दायक्या गाव के बड़वा देवीदान से प्राप्त सोलंकियों के कुर्सीनामा की बही में उल्लेख है कि गुजरात के राजा सोलंकी सिद्धराज जयसिंह के एक पुत्र बाघराव से सोलंकियों की बघेला शाखा निकली । सिद्धराज जयसिंह के वंशधर गहलाराव ( भीमदेव दूसरा ) का पुत्र भुवनपाल ( त्रिभुवनपाल ) गुजरात छूटने पर अजमेर की ओर आया । किन्तु कुर्सीनामा नहीं में भुवनपाल के पृथ्वीराज की बहिन से विवाह करने की बात । बही में भुवनपाल और उसके लोग आकर जहाँ रहे उसका नाम लाहराणा लिखा है । भुवनपाल के दूसरे पुत्र राणकदेव से सातवीं पीढ़ी में भोज हुआ 


1. राणकदेव 

2. कामड़देव 

3. गढ़देव 

4.सारंगदेव 

5. त्रिभुवन 

6. दीपा ( देषा ) 

7. भोजराज 


पानरवा में सोलंकी वंश के शासन की स्थापना 37 उक्त लड़ाई कब हुई और कब अक्षयराज ने आकर पानरवा पर अधिकार किया ? एक बात पर बड़वा की पोथियाँ , मुहणोत नैणसी , ओझा , बैले तथा अन्य इतिहासकार एका मत है कि मेवाड़ के महाराणा रायमल के राज्यकाल ( 1473-1509 ई . ) 


में लास से निकल कर ये सोलंकी मेवाड़ में आये । किन्तु ओंकार बड़वा की पोथी में इस घटना का वि सं . 1505 ( 1448 ई . ) में होना लिखा है , जो सही नहीं है , क्योंकि उस समय मेवाड़ का महाराणा रायमल न होकर महाराणा कुम्भा ( 1433-1468 ई . ) था । गौ . ही ओझा ने अपनी पुस्तक सिरोही राज्य का इतिहास में प्राचीन लेखों के आधार पर लिखा है कि अनुमानतः यह लड़ाई 1473 ई . और 1483 ई . के बीच किसी समय हुई । 

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सी.एस. बैले ने अपनी पुस्तक ' रूलिंग प्रिंसेज , चीफ्स एंड लीडिंग परसोनेजेज आफ राजपूताना ' में स्पष्टतः लिखा है कि 



अक्षयराज 1478 ई . में जीवराज यादव को पराजित करके पानरवा पर अधिकार कर लिया था ।


अतएव यह माना जा सकता है कि राव लाखा और भोज सोलंकी के बीच लड़ाई 1477 ई . अथवा 1478 ई . में हुई । रावत अक्षयराज ( 1478-1493 ई . ) रावत अक्षयराज का पानरवा पर अधिकार ( 1478 ई . ) जब 1478 ई . में अक्षयराज सोलंकी अपने छ भाइयों उदयसिंह , अनोपसिंह , जैतसिंह , किशनसिह , जगतसिंह और रूपसिंह तथा अपने परिवार एवं घुड़सवार सैनिकों को साथ लेकर पानरवे पहुँचा , उस समय भोमट भू क्षेत्र में तीन राजपूत शक्तियाँ पहले से अलग - अलग भागों में विद्यमान थीं । 


प्राकृतिक बनावट की दृष्टि से भोमट का पर्वतीय भू - भाग तीन भागों में विभाजित हैं । पश्चिमी भाग भाडेर भोमट , मध्य भाग वाकल भोमट और पूर्वी भाग खैराड ( खरड़ ) भोमट कहलाता है । 


उस समय भाडेर पर्वत के भू - क्षेत्र में स्थित जूड़ा ठिकाना पूर्विया चौहानों के अधीन था । ये चौहान वहाँ सोलंकियों से 80 वर्ष पहले 1 398 ई में आकर आबाद हुए थे । 14 वाकल नदी वाले भोमट के दक्षिणी भाग में पानरवा में यादव राजपूत काबिज थे , जो सबसे पहले गुजरात की ओर से आकर यहाँ बसे थे । 


पूर्वी भोमट के खैराड क्षेत्र में साभरी चौहानों के जवास एवं पहाड़ा ठिकाने थे । ये चौहान 1262 ई . में भोमट में आये और उन्होंने वहाँ भीलों को अधीन करके अपने अधिकार क्षेत्र कायम कर लिये । इस भाति दो भोमट पहाड़ों के नाम से और एक भोमट प्रधान नदी बाकल के नाम से जाने जाते थे । वाकल नदी गोगुंदा के पश्चिमी पहाड़ों से निकल कर दक्षिण की ओर बहती हुई पानरवा पहुँचती है , जहाँ से पश्चिम - उत्तर की ओर मुड़कर बहती हुई सावरमती नदी में जाकर मिलती है । 



सोलंकियों के प्रवेश के समय भोमट के तीनों भागों में से पानरवा के यादवों की स्थिति सुदृढ़ नहीं थी । 


उस समय अक्षयराज को भोमट में कोई चौथा प्रभावक्षेत्र बनाना भी सरल नहीं लगा । अतएव वह पानरवा लेने के इरादे से अपने भाईयों और सहयोगियों को लेकर मानपुर आकर ठहरा , जो पानरवे से एक मील  दूरी पर स्थित है । वे लोग सिरोही की ओर से भाडेर पर्वत और फुलवाड़ी पहाड़ियों को पार करके वहाँ पहुचे । 


जैसा कि पहले कहा गया है , पानरवे पर यदु ( यादव ) राजपूत जीवराज का अधिकार था । सोलंकियों के उस ओर आगमन की यादवों को पूर्व सूचना नहीं मिली । उनको किसी प्रकार की आशंका भी नहीं थी । अतएव सोलंकियों के आक्रमण का सामना  पानरवा का जीवराज यादव को तैयारी करने का  समय नहीं मिला । 


मानपुर पहुंचने के अगले दिन ही सोलंकियों ने ऊंची पहाड़ी पर बने पानरवा की गढ़ी पर धावा बोल दिया । यादवों और सोलंकियों राजपुतो के बीच जमकर लड़ाई हुई । 


दोनों और के योद्धा बड़ी संख्या में मारे गये । 


यादव अधिक समय तक मुकाबला नहीं कर सके । घोड़ों पर सवार सोलंकी राजपुत गढ़ी में घुस गये और यादवों को तितर - बितर कर दिया । 


जीवराज अपने पुत्र उदयभान और अन्य बाधवों सहित खेत रहा

शोष यादव गढ़ी छोड़कर भाग गये 



अक्षयराज ने महलों पर अधिकार कर लिया । इस भांति 1478 ई . में अक्षयराज ने पानरवा में सोलंकी वंश के शासन की स्थापना की जो आगामी साढ़े चार सौ से अधिक वर्षों तक वहां बना रहा । 


जैसा कि ऊपर कहा गया है , ओकार बड़वा की नस्लनामा पोथी में अक्षयराज का गद्दीनशीनी का वर्ष वि सं . 1505 दिया गया है , तद्नुसार ईस्वी वर्ष 1448 होता है , जो ऐतिहासिक घटनाक्रम की दृष्टि से सही नहीं है । 



बैले द्वारा दिया गया 1478 ई . ( 1535 वि . ) वर्ष उचित जान पड़ता है । अक्षयराज ने अपनी विजय और पानरवे के अधिकार की खबर आसपास के सभी  गावों में करवा दी । 



खबर सुनकर भील गमेती,साहुकार और मुखिया आदि अक्षयराज की सेवा में उपस्थित हो गये । 


पानरखा पर पूर्णतः अधिकार करने के बाद अक्षयराज ने अपने माताओं के भरण - पोषण के लिये प्रबन्ध किया । उसने वाकल क्षेत्र में पहले से काबिज यादवों अथवा भील गमेतियों से गांव लेकर अपने भाईयों को दिये । बड़वा पोथी के अनुसार अक्षयराज ने यादव शिवसिंह को सीसवी गांव से निकालकर वह गांव अपने भाई किशनसिंह को दिया । 


जैसा कि पहले कहा गया है , उसके एक भाई जैतसिह ने भील स्त्री से विवाह कर लिया ।



अक्षयराज ने उसको अपने परिवार से अलग कर दिया ।



जैतसिह के वंशज ग्रासिया कहलाये । अधिकांश ग्रासिया राजपूतों द्वारा भील स्त्रियों से उत्पन्न की गई संतानों के वंशज हैं । ग्रासिया लोग अधिकांशतः भोमट के पश्चिमी एवं मध्य पहाड़ी भाग में आबाद हैं ।




राजपूत परिवार ग्रासिया परिवारों से वैवाहिक संबंध नहीं करते । ग्रासिया भी स्वयं को भीलों से अलग मानकर उनसे अपने को अलग रखते हैं । 



भोमट में सोलंकियों का प्रसार प्रारंभ में सोलंकियों का अधिकार क्षेत्र वाकल नदी के दक्षिणी भाग वाले भोमट भू - भाग में रहा । किन्तु धीरे धीरे उन्होंने अपना अधिकार - क्षेत्र वाकल के मध्यवर्ती भाग की ओर बढ़ाना शुरू किया । वहाँ अभी तक पर्याप्त संख्या में गमेतीयो की अध्यक्षता में कई स्वतंत्र पालें विद्यमान थी । कुछ अधिक उत्तर में वाकल नदी के किनारे स्थित ओगणा में औदिच्य ( दूधिया ) ब्राह्मण उदयराज का कब्जा था , जिसके अंतर्गत कई भील गाव थे  


किसी ब्राह्मण का ठिकानेदार होना आश्चर्यजनक बात लगती है , चूंकि अन्यत्र कहीं किसी ब्राह्मण का अपने बल - बूते पर भील इलाके में इस प्रकार का अधिकारी नहीं पाया जाता । 



यह तथ्य इस बात का भी प्रमाण है कि भील लोग किस भाति आपस में बटे हुए थे और उनमें किसी भी प्रकार की जातीय एकता की भावना का सर्वथा अभाव था । 


यह प्रमुख कारण था कि राजपूत परिवारों ने बिना किसी बड़े विरोध के भील इलाके में अपने - अपने अधिकार क्षेत्र कायम कर लिये । 



सोलकी अधिपतियों क्रमश : अक्षयराज ,

 राजसिंह , 

महिपाल और 

हरपाल 

ने आगामी उस काल में  बड़वों की वंशावलियाँ इतिहास लेखन की दृष्टि से पूर्णतः विश्वसनीय नहीं होती । 


बड़वे वंशावलियों का पीढ़ी - दर - पीढ़ी पुनर्लेखन करते रहते हैं । हरेक बड़या जब अपने बाप - दादों द्वारा लिखी हुई वंशावली को नये रूप में लिखता है तो उसके द्वारा पहले की प्रति में उलट - फेर हो जाता है । मुख्यतः संवतों में बहुत फर्क आ जाता है । फिर भी जिस वंश का इतिहास , उसके लिये उसकी वंशावली की कई बातें उपयोगी रहती हैं । 


पानरवा में सोलंकी वंश के शासन की स्थापना 



39 ( अस्सी - नब्बे ) वर्षों में अपना अधिकार क्षेत्र विस्तृत करके ओगणा से आगे उत्तर में वाकल नदी के उत्तरी प्रवाह - क्षेत्र तक और उत्तर-पूर्व मे पई तक फैला दिया । यही कारण है कि 1567-1568 ई . में महाराणा उदयसिंह को जब भोमट के पहाड़ों में शरण लेनी पड़ी तब 




सोलंकी रावत हरपाल सबसे आगे होकर महाराणा को पानरवा लेकर आया ।


 रावत अक्षयराज के देहान्त का वर्ष बड़वा औकार की नस्लनामा पोथी और बड़वा रामसिंह की वंशावली दोनों में विक्रम संवत 1550 ( तद्नुसार 1493 ई . ) दिया गया है । अन्य किसी स्रोत में तत्संबंधी जानकारी नहीं मिलती । उसके अनुसार अक्षयराज ने लगभग 15 वर्षों तक पानरवे में शासन किया । बड़वा रामसिंह की पानरवा के सोलंकियों की वंशावली पोथी में रावत अक्षयराज के विवाह - संबंधों की जानकारी दी गई है । उसके अनुसार अक्षयराज ने तीन विवाह किये । अक्षयराज ने पहला विवाह अलधर की झाली ब्रजकंबर के साथ किया , जो राव सुरताणसिंह झाला की पुत्री एवं किशनसिंह झाला की पौत्री थी । उसने दूसरा विवाह कुम्भलगढ़ की सीसोदणी महाराणा रायमल की पुत्री चन्द्र कंवर से साथ किया । उसने तीसरा विवाह सिरोही के देवड़ा राब भवानीसिंह की पुत्री जैतकवर के साथ किया । बड़वा रामसिंह की पोथी में दी गई । संभव है अक्षयराज का विवाह उक्त्त वंशों के छोटे भाइयों के परिवारों में हुआ हो । 


अक्षयराज के केवल एक पुत्र राजसिंह को होने का उल्लेख मिलता है । 





ओंकार बड़वा की नस्लानामा पोथीं । Ruling Princes . Chiefs and Leading Personages of Rajputana by C.S. Bayley . P. 182 .


17. Ruling Princes . Chiefs and Leading Personages in Rajputana by C.S. Bayley . P. 183 . इतिहास , ले . जगदीशसिंह गहलोत , ' भाग 1 , पृ . 353 . <


13 . 12. सिरोही राज्य का इतिहास , ले . गो . ही ओझा , पृ 199-2000 , Ruling Princes , Chiefs and Leading Personages in Rajputana by C.S. Bayley , P. 182. am a weet उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के आदेशान्तर्गत मेवाड़ के ठिकानों का जो ऐतिहासिक सर्वेक्षण किया गया , उसके आधार पर लिखी थी । 


14. Ruling Princes , Chiefs and Leading Personages of Rajputana by C.S. Bayley , P. 180-182 15. वही । 53/137 TIL <


2 . 3 . Imperial Gazetteer . Rajputana ( P. 1908 ) , p . 452 . सिरोही राज्य का इतिहास , ले . गौ . ही ओझा , भाग , 1 , पृ .975 , ( 6 ) बड़वा देवीदान का सोलंकियों का कुर्सीनामा , श्यामलदास संग्रह , राजस्थान राज्य अभिलेखागार , बीकानेर । बड़वा देवीदान की बही के अनुसार भोज के तैरह पुत्र एवं दो पुत्रियाँ हुई । पुत्र थे - पाता , पंचायण , गोड़ा , जोधा , पेमा , बाछा , वेणीदास , करमा , देभा , कल्याण , सुखसिंह , मानसिंह और देवकरण । इनमें से अधिकांश लड़ाई में मारे गये । पाता और गोड़ा की संताने मेवाड़ में गई ।


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